Ghazals Of Ghalib

The Almighty Of Rekhta

Mirza Asadullah Khan (Ghalib)-27-12-1797(Agra) To 15-02-1869 (Delhi)

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(211)
न शाख-ऐ-गुल ही ऊँची है , न दीवार-ऐ-चमन बुलबुल ,
तेरी हिम्मत की कोताही , तेरी क़िस्मत की पस्ती है ।(अमीर मीनाई)

(212)
चाक दिल ,चाकजिगर ,चIकगिरेबां ,हुज़ूर ,
आदमी क्या करे जब ज़ब्त की ताक़त न रहे ।(रंजन)

(213)
आंसुओ से बुझे जाते है आँखों के चिराग ,
खून-ऐ-दिल देके उन्हें फिर से जलाना होगा ।(सरदार जाफरी)

(214)
ज़िंदगी में तो कोई चीज़ अनोखी न रही ,
मौत ही एक नई बात नज़र आती है । (हफ़ीज़ जालंधरी)

(215)
उलटी सीधी ये गुफ्तगू क्या है ,
तुझको मंज़ूर जंगजू क्या है ।(ज़फर)

(216)
ग़म अगरचे जांगूसिल है ,पे कहाँ बचे के दिल है ,
ग़म-ऐ-इश्क़ गर न होता ग़म-ऐ-रोज़गार होता ।(ग़ालिब)

(217)
ज़िंदा हूँ इस तरह के ग़म-ऐ-ज़िंदगी नहीं ,
जलता हुआ दिया हूँ मगर रौशनी नहीं ।(बहज़ाद)

(218)
हमारे सामने क़ातिल है ,किया क्या जाये ,
वो अब भी ज़ीनत-ऐ-महफ़िल है ,किया क्या जाये ।(रंजन)

(219)
आहन है ये कभी, कभी मिस्ल-ऐ-जुजाज है ,
ये ज़िंदगी भी कितनी तलववुन मिज़ाज है । (प्रोफ मंशा)

(220)
की मेरे क़त्ल के बाद उसने जफ़ा से तौबा ,
हाय उस जूदपशेमाँ का पशेमान होना ।(ग़ालिब)

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